तेली समाज की आराध्या: माँ कर्मा देवी की अमर गाथा और खिचड़ी की महिमा
जय माँ कर्मा.!
भारतवर्ष संतों और भक्तों की भूमि है, जहाँ ईश्वर को पाने के लिए ज्ञान और योग के जटिल मार्गों के साथ-साथ भक्ति का सरल और निर्मल मार्ग भी दिखाया गया है। इसी भक्ति मार्ग की एक ऐसी ही महान पथप्रदर्शक थीं भक्तिमती माँ कर्मा देवी, जो आज सम्पूर्ण तेली (साहू) समाज की आराध्या देवी के रूप में पूजी जाती हैं। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि ईश्वर को छप्पन भोग नहीं, बल्कि सच्चा भाव और प्रेम चाहिए।
आइए, आज हम माँ कर्मा के जीवन और उनकी कृष्ण भक्ति की उस अद्भुत कहानी को विस्तार से जानते हैं, जिसने उन्हें अमर बना दिया।
प्रारंभिक जीवन और कृष्ण भक्ति
माँ कर्मा देवी का जन्म लगभग 11वीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश के झांसी के पास एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम रामनारायण साहू था और वे तेली कुल में जन्मी थीं। बचपन से ही माँ कर्मा का मन सांसारिक कार्यों में कम और भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में अधिक रमता था। वे घंटों तक अपने कान्हा की मूर्ति के सामने बैठी रहतीं, उनसे बातें करतीं और उनकी सेवा में लीन रहती थीं। उनके लिए श्री कृष्ण की मूर्ति केवल पत्थर का एक टुकड़ा नहीं, बल्कि उनका जीवित पुत्र, उनका सखा, उनका सब कुछ थी।
समय के साथ उनका विवाह हुआ, लेकिन ससुराल आने के बाद भी उनकी भक्ति में कोई कमी नहीं आई। वे अपने सभी पारिवारिक दायित्वों को निभाते हुए भी अपने इष्टदेव की सेवा के लिए समय निकाल ही लेती थीं।
खिचड़ी का वो दिव्य प्रसाद: जब भगवान ने भक्त का मान रखा
माँ कर्मा देवी की कीर्ति का आधार वह चमत्कारी घटना है जो उनकी निश्छल भक्ति को दर्शाती है। यह कथा कुछ इस प्रकार है:
एक दिन माँ कर्मा अपने घर पर थीं और अपने आराध्य श्री कृष्ण के लिए भोग बनाने की तैयारी कर रही थीं। उन्होंने खिचड़ी पकाने के लिए रखी ही थी कि उनके द्वार पर एक साधु महात्मा आ गए। भारतीय संस्कृति के अनुसार, अतिथि को देवता माना जाता है। माँ कर्मा ने साधु को आदरपूर्वक बिठाया।
साधु ने कहा कि उन्हें बहुत भूख लगी है और वे स्नान करके आते हैं, तब तक उनके लिए भोजन तैयार रखना। माँ कर्मा दुविधा में पड़ गईं। एक तरफ अतिथि भूखे थे और दूसरी तरफ उन्होंने अभी तक अपने कान्हा को भोग भी नहीं लगाया था। वे मानती थीं कि जब तक उनके ठाकुर भोग नहीं लगा लेते, तब तक अन्न का एक दाना भी किसी और को कैसे दिया जा सकता है?
उनके पास इतना समय नहीं था कि वे विधि-विधान से स्नान करें, शुद्ध वस्त्र पहनें और फिर भोग की थाली सजाएँ। उनका हृदय वात्सल्य और प्रेम से भर गया। उन्होंने अपनी पकती हुई खिचड़ी की देगची उठाई और सीधे अपने कान्हा की मूर्ति के सामने रख दी। एक माँ की तरह मनुहार करते हुए बोलीं, “हे मेरे ठाकुर! आज विधि-विधान का समय नहीं है। मेरे द्वार पर साधु भूखे खड़े हैं। आप जल्दी से यह खिचड़ी आरोग लो, ताकि मैं अतिथि को भोजन करा सकूँ।”
उनके पास इतना समय नहीं था कि वे विधि-विधान से स्नान करें, शुद्ध वस्त्र पहनें और फिर भोग की थाली सजाएँ। उनका हृदय वात्सल्य और प्रेम से भर गया। उन्होंने अपनी पकती हुई खिचड़ी की देगची उठाई और सीधे अपने कान्हा की मूर्ति के सामने रख दी। एक माँ की तरह मनुहार करते हुए बोलीं, “हे मेरे ठाकुर! आज विधि-विधान का समय नहीं है। मेरे द्वार पर साधु भूखे खड़े हैं। आप जल्दी से यह खिचड़ी आरोग लो, ताकि मैं अतिथि को भोजन करा सकूँ।”
उन्होंने चम्मच से खिचड़ी उठाई और मूर्ति के मुख से लगा दी। और तभी चमत्कार हुआ! भगवान, जो केवल भाव के भूखे हैं, अपने भक्त की पुकार पर बालक रूप में प्रकट हो गए और सचमुच माँ कर्मा के हाथों से खिचड़ी खाने लगे। माँ कर्मा अपनी आँखों से यह दिव्य लीला देखकर भाव-विभोर हो गईं। भगवान ने खिचड़ी खाई और अंतर्धान हो गए। इसके बाद माँ कर्मा ने प्रसाद रूपी खिचड़ी साधु को खिलाई।
यह घटना इस बात का प्रतीक बन गई कि ईश्वर को आडंबर या जटिल कर्मकांड नहीं, बल्कि एक बच्चे जैसी सरलता और माँ जैसा निस्वार्थ प्रेम चाहिए।
जगन्नाथ पुरी से जुड़ाव: जहाँ आज भी माँ कर्मा की खिचड़ी चढ़ती है
माँ कर्मा की कथा यहीं समाप्त नहीं होती। इसका सबसे गौरवशाली अध्याय तो जगन्नाथ पुरी से जुड़ा है। कहा जाता है कि जब माँ कर्मा ने अपना शरीर त्यागा, तो पुरी के जगन्नाथ मंदिर में एक अद्भुत घटना घटी। भगवान जगन्नाथ ने पुजारियों के हाथों से भोग स्वीकार करना बंद कर दिया। मंदिर के प्रधान पुजारी चिंतित हो गए।
तब भगवान जगन्नाथ ने स्वयं पुजारी को स्वप्न में दर्शन देकर कहा, “मैं अपनी भक्त कर्मा की खिचड़ी खाने का आदी हो गया हूँ। जब तक मुझे उसकी खिचड़ी का भोग नहीं मिलेगा, मैं कोई और भोग स्वीकार नहीं करूँगा।”
भगवान की आज्ञा पाकर पुजारी हैरान रह गए। उन्होंने माँ कर्मा के बारे में पता लगाया और तब से आज तक, जगन्नाथ पुरी मंदिर में महाप्रभु को दिन का सबसे पहला भोग माँ कर्मा की खिचड़ी (जिसे वहाँ ‘खेचड़ी’ कहा जाता है) का ही लगाया जाता है। यह विश्व के इतिहास में एक अनूठी घटना है, जहाँ एक भक्त के प्रेम के कारण मंदिर की सदियों पुरानी परंपरा को बदल दिया गया और उनके भोग को स्थायी रूप से शामिल कर लिया गया।
माँ कर्मा की सीख और विरासत
माँ कर्मा देवी का जीवन हमें सिखाता है:
भक्ति का मार्ग सरल है: ईश्वर को पाने के लिए पांडित्य या धन की नहीं, बल्कि निर्मल हृदय और सच्ची श्रद्धा की आवश्यकता होती है।
भाव ही प्रधान है: आप भगवान को जो भी अर्पित करते हैं, वह शुद्ध भावना से किया जाना चाहिए। एक प्रेम से खिलाया गया खिचड़ी का दाना भी छप्पन भोगों से श्रेष्ठ है।
जाति या कुल नहीं, कर्म और भक्ति महत्वपूर्ण हैं: माँ कर्मा ने यह सिद्ध किया कि कोई भी व्यक्ति, किसी भी कुल में जन्म लेकर, अपनी भक्ति से सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सकता है।
आज माँ कर्मा देवी न केवल तेली समाज, बल्कि समस्त सनातन धर्मावलंबियों के लिए प्रेरणा की स्रोत हैं। उनकी जयंती (वैशाख कृष्ण एकादशी) को बड़े ही धूमधाम और श्रद्धा से मनाया जाता है। उनकी कहानी हमें याद दिलाती है कि यदि भक्ति सच्ची हो, तो भगवान आज भी अपने भक्त के लिए दौड़े चले आते हैं।
माँ कर्मा देवी की जय.!